दलबदलुओं और आश्वासन पाने वालों में छटपटाहट

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Drnewsindia .com /भोपाल राजनीति के सूत्र बताते हैं कि भोपाल से लेकर दिल्ली तक कई कद्दावर भाजपा नेता सत्ता-संगठन में अपनी जगह बनाए रखने के लिए दौड़ रहे थे। जहां कुछ नेताओं ने सक्रियता व दबाव से मामले आगे बढ़ाने की कोशिश की, वहीं कई समर्थक नेताओं की कोशिशें सफल नहीं रहीं। परिणामस्वरूप इन नेताओं के सामने अब निगम-मंडल और प्राधिकरणों में पद पाने के अलावा लड़ने के और अवसर नहीं बचे दिखते हैं — खासकर तब जब विधानसभा चुनाव नजदीक हैं।

सूत्रों के हवाले से यह भी कहा जा रहा है कि जिन नेताओं को प्रदेश कार्यकारिणी में जगह नहीं मिली, वे अब इन संस्थागत पदों के लिए विशेष रूप से आश्वासन चाहते हैं। पर समस्याग्रस्त यह है कि एक पद के लिए प्रभावशाली दावेदारों की संख्या इतनी अधिक है कि एक उपयुक्त या संतुलित नाम चुनना सत्ता और संगठन दोनों के लिये चुनौती बन गया है।


संभावित पद जहाँ नियुक्तियाँ बाकी हैं

मीडिया तथा सूत्रों के अनुसार जिन संस्थाओं में अभी नियुक्तियाँ शेष हैं उनमें शामिल हैं — मेला प्राधिकरण, राज्य नीति एवं योजना आयोग, सामान्य निर्धन कल्याण आयोग, सीआइएसपी, वेयर-हाउसिंग एंड लॉजिस्टिक कार्पोरेशन, स्टेट सिविल सप्लाई कॉर्पोरेशन, खनिज विकास निगम, खाद एवं ग्रामोद्योग बोर्ड, लघु उद्योग विभाग, राज्य बीज निगम, राज्य पर्यटन विकास निगम, भोपाल विकास प्राधिकरण, वन विकास निगम लिमिटेड आदि। इन संस्थाओं में अध्यक्ष/उपाध्यक्ष और बोर्ड सदस्य स्तर की नियुक्तियाँ राजनीतिक संतुलन बनाने का एक तरीका मानी जाती हैं।


दिग्गजों की बेचैनी — कारण और निहितार्थ

कई वरिष्ठ नेताओं ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि वे दशकों से पार्टी के लिए काम कर रहे हैं—कई ने 10-25 साल तक सक्रिय राजनीति में योगदान दिया, संगठनात्मक काम संभाला और स्थानीय स्तर पर भी प्रभावी रहे; फिर भी अवसर नहीं मिला। इस स्थिति का राजनीतिक दौर में असर यह है कि वे लोग अब अधिक दबाव बना रहे हैं, और यदि नियुक्ति नहीं होती तो भविष्य में उनकी राजनीतिक असरदार स्थिति कम हो सकती है—खासकर उम्र बढ़ने के साथ।

पार्टी के भीतर यह भी कहा जा रहा है कि वर्तमान नेतृत्व न सिर्फ अनुभव को महत्व दे रहा है बल्कि नई पीढ़ी को आगे लाने पर भी जोर दे रहा है। प्रदेश कार्यकारिणी में युवा चेहरे शामिल करने की नीति के चलते कुछ अनुभवी नेताओं को पीछे रहने का डर सताने लगा है — इसी निहित चिंता ने निगम-मंडलों में मौके पाने की होड़ तेज कर दी है।


राजनीतिक समीकरण पर असर

यदि नियुक्तियाँ दीर्घसूत्री सोच के आधार पर नहीं की गईं, तो इससे दो तरह की चुनौतियाँ बन सकती हैं:

  1. संगठनात्मक असंतोष: जिन नेताओं को आश्वासन या नियुक्ति नहीं मिली, वे अंदरूनी स्तर पर असंतोष फैला सकते हैं, जो चुनावी रणनीति को प्रभावित कर सकता है।
  2. कार्यकारिणी-बैलेंस: नियुक्तियाँ जब क्षत्रों/क्षेत्रों के तालमेल के बिना होंगी, तो पार्टी की क्षेत्रीय और सामाजिक संतुलन की इमेज पर असर पड़ सकता है।

गुना का उदाहरण और स्थानीय दबाव

सुत्रों ने गुना के केपी यादव का उदाहरण भी दिया, जिनको आश्वासन मिलने-न मिलने का मामला सामने आया — ऐसे कई व्यक्तिगत उदाहरण हैं जो बतलाते हैं कि स्थानीय स्तर पर नेताओं के बीच अपेक्षाएँ अभी भी बहुत ऊँची हैं। कुछ पूर्व कांग्रेसी नेताओं ने भी हालिया रियायती स्थिति का हवाला देकर दबाव बनाया है कि उन्हें भी समुचित स्थान दिया जाए।

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