श्रीराम कथा में उमड़ा आस्था का सैलाब

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सीहोर / भरत त्याग व भ्रात: प्रेम की मूर्ति हैं. राम के प्रति भरत का प्रेम लक्ष्मण से कम नहीं था, श्रीराम कथा में कहा गया है कि भरत जैसा भाई न कभी हुआ है और शायद न कभी होगा। श्रीराम कथा परिवार को जोड़ने का कार्य करती है। उक्त विचार शहर के रुकमणी गार्डन में चित्रांश समाज और अखिल भारतीय कायस्थ महासभा सीहोर के तत्वाधान में जारी सात दिवसीय संगीतमय श्रीराम कथा के छठवें दिन संत उद्ववदास ने कहे। संत ने भगवान श्रीराम और भरत के त्याग और समर्पण का विस्तार से वर्णन किया।
उन्होंने कहाकि राज दशरथ की मृत्यु के बाद अयोध्या के राजकुल का सूर्य अस्त हो गया था, अब हर ओर पीड़ा थी, अश्रु थे और था भय, नियति के हाथ का खिलौना बनी कैकई नहीं देख पा रही थीं, पर उनके अतिरिक्त हर व्यक्ति जानता था कि राज्य में मचे इस घमासान से सबसे अधिक दुख भरत को होगा। सभी यह सोच कर भयभीत थे कि भरत के आने पर क्या होगा, धराधाम से जब कोई प्रभावशाली सज्जन व्यक्ति प्रस्थान करता है तो, कुछ दिन तक वहां के वातावरण में शोक पसरा रहता है। समूची प्रकृति ही उदास सी दिखने लगती है। भरत का रथ जब अयोध्या की सीमा में प्रवेश कर गया, तभी उन्हें अशुभ का आभास होने लगा। रथ जब अयोध्या नगर में आया तो, उन्हें स्पष्ट ज्ञात हो गया कि कुल में कुछ बहुत बुरा घट गया है। और रथ जब राजमहल के प्रांगण में पहुंचा तो, महल के ऊपर राष्ट्रध्वज की अनुपस्थिति सहज ही बता गई कि महाराज नहीं रहे। पिता की अनुपस्थिति में बड़ा भाई पिता के समान हो जाता है। छोटे भाई उसी के कंधे पर सिर रख कर रो लेते हैं, उसी से लिपट कर अपना दुख बांट लेते हैं। पिता नहीं रहे इस बात का आभास होते ही भरत और शत्रुघ्न को जिसकी सबसे पहले याद आई, वे श्रीराम थे। संत उद्ववदास महाराज ने विस्तार से वर्णन करते हुए कहाकि राम कथा में, जब भरत को पता चलता है कि उनकी माता कैकेयी ने राजा दशरथ से राम के वनवास और भरत के राजा बनने का वचन लिया है, तो वह बहुत क्रोधित हो जाते हैं. भरत अपनी माता को त्याग देते हैं और कहते हैं कि अब वह उनकी माता नहीं रही, क्योंकि उन्होंने ऐसा कार्य किया है जिससे उनका सम्मान और राम का हित दोनों को नुकसान हुआ है। राम कथा के अनुसार, जब राम को युवराज बनाने की चर्चा होती है, तो मंथरा नाम की दासी के बहकावे में आकर कैकेयी दशरथ से राम के लिए 14 वर्ष का वनवास और भरत के लिए राज्य की माँग करती है. जब भरत को इस बात का पता चलता है, तो वह अपनी माता कैकेयी से बहुत क्रोधित हो जाते हैं और उससे अपना नाता तोड़ देते हैं। भरत अपनी माता के इस कार्य को अपराध मानते हैं और कहते हैं कि उन्होंने अपने स्वार्थ के लिए ऐसा किया है जिससे राम का वनवास और भरत का भविष्य दोनों को नुकसान हुआ है। भरत अपनी माता से कहते हैं कि अब वह उनकी माता नहीं रही और उन्हें माता के रूप में स्वीकार नहीं करेंगे। 

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